नम्रता, नज़रिये की बात हैं।
यह ‘नम्र होना’ सीरीज़ के ५ वे दिन में आपका स्वागत है… उम्मीद है की अब तक आपको यह सीरीज़ से कुछ सीखने मिला है।
पहले दिन मैंने आपके साथ एक सादा-सा ख़याल बाँटा था: नम्रता यह नहीं कि आप अपने आपको किसी से कम समझे, बल्कि यह है कि आप अपने बारे में कम सोचें और दूसरों के बारे में ज़्यादा।
अब अगला सवाल यह उठता है, “तो फिर मुझे क्या सोचना चाहिए?”
उसका जवाब भी सरल है: ख़ुदा के बारे में।
जब हम अपनी नज़रें और अपना ध्यान ख़ुद से हटाकर ख़ुदा पर लगाते हैं—जब हम अपनी परेशानियों की जगह उसकी महानता पर ग़ौर करते हैं और अपने दर्द की जगह उसकी मोहब्बत पर निर्भर रहते है—तो हमारी रूह में अपने आप नम्रता निर्माण होती है।
नम्रता का मतलब है अपने नज़रिये को ख़ुद से हटाकर ख़ुदा पर लगाना।
यह अय्यूब की कहानी में साफ़ ज़ाहिर होता हैं।
लगातार बीस अध्यायों (अय्यूब ३–३१) तक़, अय्यूब ग़म में डूबा हुआ है, अपनी मायूसी, शिकायतें और अपनी धार्मिकता को बयान करता है।
हक़ीक़त में, कौन उस पर इल्ज़ाम लगा सकता है? उसने सब कुछ खो दिया था और वो भी अपनी किसी ग़लती के बिना; वह एक पाक़-साफ़, सीधा और सच्चा इंसान था, जिसे ख़ुदा का आदरयुक्त खौफ था (अय्यूब १)।
अगर किसी को शिक़ायत करने का हक़ था, तो वो अय्यूब को ही था।
लगभग हर आयत में, अय्यूब के ग़म में “मैं”, “मुझे” या “मेरा” जैसे अल्फ़ाज़ पाए जाते हैं। वह पूरी तरह अपनी तकलीफ़ में उलझा हुआ था।
लेकिन फिर, अध्याय ३८ से ख़ुदा जवाब देना शुरू करता हैं और अय्यूब को अपनी शान, क़ुदरत और ताक़त की याद दिलाता है। वो जैसे अय्यूब से पूछता है— “मेरी तुलना में, तू कौन है?”
अचानक अय्यूब का नज़रिया बदल जाता है। उसके बोलने का अंदाज़ नरम हो जाता है और उसके दिल से नम्रता बहने लगती है:
*“मैं नाक़ाबिल हूँ—मैं तुझको क्या जवाब दूँ? मैं अपना हाथ मुँह पर रखता हूँ। एक बार बोल चुका हूँ पर अब जवाब नहीं दूँगा—दो बार बोल चुका, पर अब और कुछ नहीं कहूँगा।” – अय्यूब ४०:४–५
और फ़िर वह कहता है:
*“मैं जानता हूँ कि तू सब कुछ कर सकता है; तेरी कोई मर्ज़ी नाक़ाम नहीं की जा सकती।” – अय्यूब ४२:२
अब अय्यूब की नज़र बदल चुकी है; उसकी आँखें अब ख़ुदा पर टिकी हैं और यही उसको नम्र बनाती है।
जब हम ख़ुद पर और अपनी मुश्किलों पर ग़ौर करने लगते हैं तब घमंड, अहंकार और अपनी धार्मिकता हमारे दिल में घर करती है। इसके बजाय, हम ख़ुदा की भलाई और उसकी अज़मत पर नज़र रखें।
अपना ध्यान ख़ुदा पर लगाए जिससे नम्रता आपके दिल में विकसित होने लगेगी।