हम नज़र से नहीं, पर ईमान से चलते हैं।

हम इस सीरीज़ "बिना देखे, पूरा यक़ीन" के तीसरे दिन पर है और जानना चाहेंगे कि अब तक आपके क्या ख़यालात है। आप हमें लिख सकते है और हमारी टीम का कोई सदस्य आपको ज़रूर जवाब देगा। 💌
जैसा कि यह आयत बहुत ही ख़ूबसूरत और ताक़तवर है: "क्योंकि हम नज़र से नहीं, पर ईमान से चलते हैं।" (२ कुरिन्थियों ५:७) मगर हम यह क़बूल करते हैं कि ज़ैक की गंभीर बीमारी और उसे हर रोज़ दर्द में तड़पते देखना — हमारे लिए महज़ एक इम्तेहान ही नहीं, बल्कि उस आयत पर यक़ीन बनाए रखना और उसे जीना, एक नामुमकिन सी कोशिश बन गई थी।
एक तरफ़, ईमान हमें अदृश्य पर यक़ीन करने को पुकार रहा था, लेकिन दूसरी तरफ़, ज़ैक की दर्द भरी हक़ीक़त को हम नज़रअंदाज़ भी नहीं कर सकते थे।
ईमान का मतलब हक़ीक़त से मुँह मोड़ लेना नहीं है, बल्कि यह यक़ीन रखना है कि ख़ुदा की सच्चाई हर उस चीज़ से कहीं ज़्यादा अज़ीम और स्थायी है, जिसे हमारी इंसानी आँखें देख नहीं सकतीं।
- जहाँ आँखें दीवारें देखती हैं — वहाँ ईमान दरवाज़े देखता है।
- जहाँ आँखें अभाव गिनती है — वहाँ ईमान प्रावधान देखता है।
- जहाँ आँखें दर्द देखती है — वहाँ ईमान मक़सद देखता है।
ईमान से चलना मतलब ये है कि हम उस सच्चाई पर ऐतबार करें जो हम ख़ुदा के बारे में जानते हैं।एक दफ़ा यह गुफ़्तगू एक महान प्रचारक और मदर टेरेसा के बीच हुई।
प्रचारक: “मदर टेरेसा, क्या आप मेरे लिए ‘स्पष्टता’ मिलने की दुआ करेंगे?”मदर टेरेसा (नम्रता से): “नहीं, मैं यह दुआ नहीं कर सकती।”प्रचारक (चौंक कर): “क्यों नहीं?”मदर टेरेसा (शांत स्वर में): “क्योंकि मुझे स्वयं कभी स्पष्टता नहीं मिली है।”प्रचारक (हैरान हो कर):“लेकिन आपकी ज़िंदगी तो इतनी स्पष्ट, दिशा-युक्त और मक़सद-भरी लगती है।”मदर टेरेसा (मुस्कुराकर): “मुझे स्पष्टता कभी नहीं मिली — लेकिन मैंने हर क़दम पर ऐतबार ज़रूर किया है।”
ज़िंदगी में ऐसे मौसम ज़रूर आएँगे, जब सब कुछ धुँधला, अनिश्चित और ग़ैर यक़ीनी लगेगा। जब जवाब खामोश हो जाएँगे, चमत्कार और चंगाई कहीं नज़र नहीं आएँगे —और कभी-कभी हर तरफ़ सिर्फ़ दर्द, ग़म और नाक़ामी की परछाइयाँ ही दिखाई देगी।
मगर यह हमेशा याद रखें: हमें नज़र से नहीं, पर ईमान से चलने के लिए बुलाया गया हैं। हमें उस पर चलने के लिए बुलाया गया है जिस पर हम पूरा यक़ीन करतें हैं, और उसका नाम है, यीशु मसीह।
क्या आप आज ईमान की राह पर चलने का यह फ़ैसला करेंगे? — भले ही मंज़िल दूर हैं?
जब दुआओं के जवाब अब तक खामोश हैं, हालात में कोई बदलाव नहीं दिखता, और हर तरफ़ सिर्फ़ इंतज़ार और अनिश्चितता की परछाइयाँ हैं — तब भी क्या आप भरोसा करेंगे कि ख़ुदा अब भी काम कर रहा है, भले ही वह हमारी आँखों से ओझल है? क्या आप उस यक़ीन को थामे रहेंगे जो देखने पर नहीं, बल्कि जानने पर टिका है और उस सच्चाई पर, जो वक़्त और हालात से परे है?
महज निशानियों के मंज़र का इंतज़ार न करें, बल्कि ईमान की रौशनी में क़दम बढ़ाएँ। — यही अक्सर चमत्कार को ज़ाहिर करता है।

