आपकी ज़िंदगी के लिए ख़ुदा अपने मंसूबे ज़ाहिर करेगा।

कोई मुझसे क्या उम्मीद रखता है, ये जानना मुझें बेहद पसंद हैं। जब मुझसे कोई काम करने को कहे, तो मेरे लिए ये ज़रूरी होता है कि बात साफ़-साफ़ समझाई जाए और उसके पीछे की वजह भी बताई जाए। इससे काम को अंजाम देने में ज़्यादा आसानी होगी — है ना?
लेकिन मैंने अपनी ज़िंदगी के तजुर्बों से यह सीखा है कि जब ख़ुदा हमें किसी काम के लिए बुलाता है, तो वह अक्सर अपने मंसूबे पूरी तरह ज़ाहिर नहीं करता। उसकी बुलाहट हमेशा साफ़-साफ़ समझ में नहीं आती — और ना ही वह हर बार हमें उसके पीछे की वजह इज़हार करता है।
क्यों? क्योंकि वह चाहता है कि हम क़दम-दर-क़दम उसी पर निर्भर रहें - ज़िंदगी के हर एक मोड़ पर। वो हमें एक यक़ीन और ईमान के सफ़र पर ले चलता है, जहाँ हमें लगातार उसकी रहनुमाई की तलाश करनी होती है और उसके इंतज़ार में रहना पड़ता है।
ऐसे सफ़र के लिए बेहिसाब ईमान और दिलेरी की दरकार होती है। हमें बुलाया गया है कि हम उसके पीछे चलें — चाहे रास्ता धुँधला सा हो, और सब कुछ पूरी तरह नज़र न आ रहा हो, फिर भी यक़ीन से आगे क़दम बढ़ाएं।
लेकिन इसमें एक ही जगह पर ठहर जाने का ख़तरा भी होता है — जैसे सर्दियों में बर्फ़ जम जाती है। हम अक्सर ग़लती करने के डर से आगे बढ़ने से कतराते है। हमें हर बात को पूरी तरह समझने और हर वजह को जानने की बेचैनी होती है — जो शायद कभी पूरी न हो।
इसके विपरीत, बाइबल में कई लोगों को ख़ुदा ने एक साफ़ और ग़ैर-मामूली तरीकें से बुलाया था। जैसे कि:
१. मूसा (निर्गमन ३)२. दाऊद (१ शमूएल १६)३. मरियम (लूका १:२६-३८)४. योना (योना १)
योना की कहानी तो ख़ास तौर पर दिलचस्प है। ख़ुदा ने न सिर्फ़ योना को बहुत साफ़ ज़िम्मेदारी दी थी, बल्कि जब योना उस बुलाहट से भागा, तो ख़ुदा ने एक ज़बरदस्त तरीक़े से दखल दी — एक तेज़ तूफ़ान और एक बहुत बड़ी मछली भेज कर उसेफ़िर से बुलाया (योना १ और २)।
इसका मतलब ये है, कि अगर ख़ुदा आपको किसी ख़ास मक़सद के लिए बुलाना चाहता है, तो वो आप तक़ उसका पैग़ाम, ज़रूर पहुंचाएगा। वो चुकेगा नहीं और शायद वो ये भी तय कर ले कि आप इनकार न कर पाए, ठीक वैसे ही जैसे योना के साथ हुआ।
लेकिन मसीही ज़िंदगी में, ज़्यादातर लोगों को, ख़ुदा की तरफ़ से आये मंसूबें को पूरा करने के लिए ऐसे रास्तों पर चलना पड़ता हैं जहाँ उन्हें बिना कुछ सोचें -समझें सुनना, यक़ीन करना, क़दम बढ़ाना, और इसे लगातार दोहराते रहना पड़ता है।
मुझे किंगडम सिटी चर्च के पास्टर. मार्क वर्घीस की लिखीं बात बहुत पसंद है:
“निशाना लगाने से पहले ही, बेझिजक, गोली मारें। अगर सच में आपके हाथ में बंदूक़ हैं, तो ये सलाह बेशक़ ग़ैर-ज़िम्मेदार और बेवक़ूफ़ी है — लेकिन ख़ुदा के साथ चलने के सफ़र में, अक्सर, बिना निशाना लगाए (साफ़-साफ़ समझने से पहले) बंदूक़ चलाना (क़दम बढ़ाना) पड़ता है।
क्या आप ख़ुदा के मंसूबें को क़बूल करने और उसमें चलने के लिए तैयार हैं? और उस पर यक़ीन रखनें कि, ज़िंदगी के सफ़र में वह आपकी रहनुमाई करता जाएगा?

