उसूल, ज़िंदगी को आसान नहीं, बल्कि उसे बेहतर समझने लायक बना देते हैं।

आज एक कहानी से शुरुआत करते हैं।
एक नौजवान को एक बेहद कामयाब कंपनी के मालिक का पर्सनल असिस्टेंट बनने का मौका मिला था। पहले ही दिन, उसके डेस्क पर फ़ोन की घंटी बजी...। बॉस ने कॉलर आई.डी. देखी और कहा, "उसे कह दो कि मैं यहाँ नहीं हूँ।"असिस्टेंट ने फ़ोन उठाया और कहा, "हाँ, वो यहीं हैं," और फ़ोन बॉस को थमा दिया। इससे बॉस बहुत नाराज़ हुआ।"मैंने अभी क्या कहा था?" वह चिल्लाकर बोला।
असिस्टेंट ने नरमी से जवाब दिया, "झूठ बोलना मेरे उसूलों के खिलाफ़ है। अगर मैं आपके लिए झूठ बोल सकता हूँ, तो आप मुझ पर कैसे यक़ीन करेंगे कि मैं आप से झूठ नहीं बोलूंगा?" उसके इस ईमानदारी ने उसे एक क़ामयाब इंसान बनाया।
उसूल मायने रखते हैं - कोई भी उसूल नहीं, बल्कि ख़ुदा के उसूल। बाइबल इन उसूलों से भरी पड़ी है और हमें इनसे लिपटकर रहना चाहिए!
शुरुआत करने के लिए एक बेहतरीन जगह है: दस आज्ञाएँ (निर्गमन २०) लेकिन इतना ही नहीं और भी बहुत है, उनमे से कुछ उदाहरण है:
- दशमांश देना (मलाकी ३:१०)
- ग़रीबों की फ़िक्र करना (नीतिवचन १९:१७)
- माफ़ करना (इफिसियों ४:३२)
- दूसरों की ख़िदमत करना (मरकुस १०:४५)
कई बार यह सब बहुत भारी लगता है जैसे ज़िंदगी जीने के लिए बहुत सारे “क़ायदे-क़ानून” हैं, ख़ासतौर पर नए विश्वासियों के लिए। लेकिन याद रखिए:
*"अनुग्रह के द्वारा, और ईमान के ज़रिये ही तुम्हारा उद्धार हुआ है। यह तुम्हारी कोशिशों या कर्मों का फल नहीं, ताकि तुम घमण्ड कर सके — यह तो ख़ुदा का बेहिसाब और बेशकीमती तोहफ़ा है” — इफिसियों २:८-९
हम उसूलों पर टिकी मसीही ज़िंदगी इसलिए नहीं जीते कि हम उद्धार या स्वर्ग कमाएँ, बल्कि इसलिए जीते हैं क्योंकि यीशु मसीह ने अपनी क़ुर्बानी से हमें ये सब पहले ही दे दिया है।
उद्धार सिर्फ़ और सिर्फ़ यीशु मसीह पर ईमान लाने से आता है। तो फिर उसूलों की ज़रूरत क्यों हैं?
ख़ुदा के उसूल हम पर पाबंदी नहीं, मगर हमारे हिफ़ाज़त के लिए हैं। ये आपकी ज़िंदगी को सीमित नहीं, बेहतर समझने लायक बना देते हैं।
ख़ुदा के उसूलों पर चलना पहले-पहल मुश्किलें बढ़ा दे, लेकिन यक़ीन मानिए — यही राह आख़िरकार आपको सुकून, इज़्ज़त और उसकी बरक़तों से भर देती है।
(*इस प्रोत्साहन के कुछ आयत मेरे अल्फ़ाज़ और अंदाज़ में लिखे गए हैं)

